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Sunday, March 9, 2025
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अंतत: बाबूलाल मरांडी की पांच वर्षों की प्रतीक्षा पूरी हो सकी, अहम सवाल ये कि चुनाव परिणाम आने 101 दिन भाजपा मौन धारण क्यों किये रही?

श्याम किशोर चौबे

(वरिष्ठ पत्रकार)

रांची : झारखंड विधानसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद से ही भाजपा कोमा में थी। अनवरत चलनेवाली उसकी सांगठनिक गतिविधियां चलती रहीं, लेकिन संवैधानिक मसलों पर आश्चर्यजनक तरीके से वह गहन चुप्पी साधे रही। उसने 6 मार्च 2025 को अपने विधायक दल के नेता पद पर बाबूलाल मरांडी को चुना/नियुक्त किया। अगले दिन 7 मार्च को स्पीकर रवीन्द्र नाथ महतो उनको नेता विरोधी दल की मान्यता दे दी।

इस तरह पांच वर्षों की बाबूलाल मरांडी की प्रतीक्षा पूरी हो सकी। उनको भाजपा को नेता विधायक दल नियुक्त किये जाने का पत्र पार्टी के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष रवींद्र कुमार राय ने स्पीकर को दिया था। ये वही रवींद्र राय हैं, जो दस साल पहले 2015 में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष हुआ करते थे। तब बाबूलाल मरांडी अपना दल जेवीएम चलाया करते थे।

2014 के अंतिम दिनों में हुए विधानसभा चुनाव में जेवीएम के आठ विधायक सदन पहुंचे थे, लेकिन उनमें से छह भाजपा में चले गये थे। उन पर दल-बदल का केस स्पीकर कोर्ट में जब बाबूलाल ने दर्ज कराया था, तब इन्हीं रवींद्र राय ने उनके मर्जर की सूचना स्पीकर न्यायाधिकरण को दी थी। तब भाजपा नेतृत्ववाली एनडीए सरकार थी।

तत्कालीन स्पीकर ने एंटी डिफेक्शन केस प्रायः पांच वर्षों तक लटकाये रखा। वह दिन था और अब के दिन हैं, बाबूलाल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं और रवींद्र राय कार्यकारी अध्यक्ष और वे ही राय महाशय बाबूलाल को पार्टी विधायक दल का नेता चुने जाने का प्रमाण पत्र जारी करने को विवश हुए।

दूसरी ओर जिन वर्तमान स्पीकर रवींद्र नाथ महतो ने बाबूलाल को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता दी, उन्हीं रवींद्र महतो ने पांच साल पहले इन्हीं बाबूलाल को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता देने से मना कर दिया था और तारीख-दर-तारीख सुनवाई करते रहे।

तिलिस्मी हुआ करते हैं राजनीति के खेल-तमाशे 

दरअसल, 2019 के चुनाव में बाबूलाल की पार्टी जेवीएम महज तीन विधायक लेकर सदन में पहुंची थी। इनमें से दो कांग्रेसगामी हो गये और बाबूलाल ने अपनी पार्टी का भाजपा में मर्जर कराकर 14 साल बाद भाजपा में वापसी की थी।

राजनीति के खेल-तमाशे सचमुच बहुत तिलिस्मी हुआ करते हैं। इनको समझना कतई आसान नहीं होता। तभी तो बिना पढ़ा-लिखा या थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा नेता भी मंत्री/मुख्यमंत्री न केवल आईएएस/आईपीएस अधिकारियों को नचा लेता है, अपितु पूरे राज्य/देश को नचा लेता है।

बाबूलाल मरांडी सौम्य हैं, मृदुभाषी हैं, सहज हैं, अनुभवी हैं और पूरे राज्य में उनकी पहचान हैं। उनको मिला वर्तमान पद सर्वथा उनके योग्य है। वे राज्य का प्रथम मुख्यमंत्री रह चुके हैं और केंद्र में भी मंत्री रहे हुए हैं। उन्होंने भाजपा को झारखंड क्षेत्र में पहचान दिलाने में अहम भूमिका अदा की थी। ऐसे में उनसे उम्मीद तो बनती है कि सदन में सत्तापक्ष के समक्ष वे सीना ताने खड़े हो सकेंगे।

सवाल बस एक ही है, चुनाव परिणाम आने के दिन और बाबूलाल को नेता विधायक दल चुने जाने के दिन के बीच के 101 दिन भाजपा मौन क्यों धारण किये रही?

महाराष्ट्र, हरियाणा, एमपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि-आदि राज्यों में सम-विषम परिस्थितियों में भी चुनाव जीतनेवाली भाजपा छोटे से झारखंड में हार के कारण सदमे में तो नहीं थी? वह इस सदमे के कारण कोमा में चली गई थी या जबर्दस्त अंत से तो नहीं गुजर रही थी?

सूचना आयुक्त, लोकायुक्त जैसे संवैधानिक पदों पर नियुक्ति का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा हुआ है। हाल ही सुप्रीम कोर्ट ने इन पदों पर पखवाड़े भर में नियुक्ति का आदेश जारी किया तो सत्ता पक्ष महागठबंधन के पास सीधा-सादा जवाब था, नेता प्रतिपक्ष हैं ही नहीं, कैसे बहाली हो?

सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं आता, तो क्या भाजपा अभी भी कोमा में ही रहती?

राज्य में आरटीआई कानून की छह-सात वर्षों से ऐसी-तैसी हुई पड़ी है। तब से सरकारें किसी न किसी बहाने इनकी नियुक्तियां टालती आई हैं। चाहे एनडीए की सरकार रही हो कि महागठबंधन की, दोनों का एक ही हाल रहा। जैसे उदयी, वैसे भान। सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं आता तो क्या भाजपा अभी भी कोमा में ही रहती? वही जानें।

झारखंड 25 वर्ष का होने जा रहा है। इस बीच 14 सरकारें यहां बनीं। सात जने मुख्यमंत्री बने। इन सात में से पांच भाजपा के ही पाले में हैं। प्रथम तो बाबूलाल मरांडी, जिनको फिलहाल एक आकर्षक पद मिल गया। दूसरे हैं चम्पाई सोरेन। ये महानुभाव झामुमो के दिग्गज नेताओं में शुमार थे। छह बार के विधायक थे। मंत्री थे।

2024 में जनवरी के बाद परिस्थितियोंवश उनको पांच महीने के लिए मुख्यमंत्री का ताज मिल गया। वह जैसे ही उनके सिर से उतरा, वे खुद को अपमानित महसूस करने लगे और इधर-उधर की बातें करते-करते अगस्त में भाजपा के पल्लू में जा बैठे। तब भाजपा उनको राज्य का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री का तमगा देते नहीं अघा रही थी।

विधानसभा चुनाव आया तो राज्य की 28 जनजातीय सीटों में से भाजपा के पाले में केवल एक ही आ सकी, वह भी चम्पाई की। क्या उस ‘सर्वश्रेष्ठ’ मुख्यमंत्री रहे अपने एकमात्र जनजातीय सीट जीतनेवाले महानुभाव को भाजपा पर्याप्त मान-सम्मान देगी? जब चम्पाई को फोड़ना था, तब वह उनके अपमान की बातें करते नहीं थकती थी। अब क्या करेगी? वही जानें।

बात रघुवर दास की। वे लगातार पांच बार के विधायक थे। 2014-19 के बीच एनडीए सरकार में मुख्यमंत्री थे। फुलटर्म मुख्यमंत्री रहने का पहला रिकार्ड उनके नाम दर्ज है। 2019 के चुनाव में हार गये तो कुछ अरसा उनसे सांगठनिक कार्य लेने के बाद उनको ओडिशा का गवर्नर बना दिया गया। जाहिर है कि दिल्ली में उनकी बहुत पूछ है। 23 दिसंबर 2024 को उन्होंने अचानक गवर्नरी छोड़ दी। बहुत शोर मचा कि उनको प्रदेश या राष्ट्रीय संगठन की जवाबदेही सौंपी जानेवाली है। उनकी बेरोजगारी का तीसरा महीना बीतनेवाला है। भाजपा उनका कैसा उपयोग करेगी? वही जानें।

अर्जुन मुंडा झारखंड में तीन मर्तबा मुख्यमंत्री रहे। तीनों ही बार फुलटर्म उनकी किस्मत में नहीं लिखा था। फिर 2019 में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद वे केंद्र में जनजातीय कार्य महकमे के मंत्री बनाये गये। फुलटर्म इन्जॉय किया। 2024 का लोकसभा चुनाव वे नहीं जीत सके तो विधानसभा चुनाव में उनकी धर्मपत्नी को मौका दिया गया। वे भी हार गईं। अब अर्जुन मुंडा का भविष्य? भाजपा ही जाने।

मधु कोड़ा की चर्चा के बगैर विषय अधूरा रहेगा। जनाब भाजपाई स्कूल से ही शिक्षित-दीक्षित-प्रशिक्षित हैं। 2006 में परिस्थितियोंवश वे बतौर निर्दलीय ही मुख्यमंत्री बन गये। अर्जुन मुंडा को अपदस्थ कर वे मुख्यमंत्री बने थे। यूपीए के पाले में खेल रहे थे। फिर केस-मुकदमों में फंसे तो चुनाव लड़ने से ही डिबार कर दिये गये। उनकी धर्मपत्नी ने सियासी मोर्चा संभाल लिया। वे विधायक बनीं, फिर कांग्रेस के टिकट पर सांसद भी चुन ली गईं।

शायद रघुवर को अब संगठन की जवाबदेही मिल ही जाए…!

2024 के लोकसभा चुनाव से पहले कोड़ा-दम्पति ने भाजपा का रूख कर लिया। मैम हार गईं। पांच महीने बाद विधानसभा चुनाव भी हार गईं। अब शायद भाजपा में इस दम्पति की चर्चा तक नहीं होती। क्यों नहीं होती? भाजपा ही जाने। हार कर घर बैठे नेताओं को कौन पूछता है? पार्टी भी नहीं।

किस्मत हो तो रघुवर जैसी, जिनको खुद हारने के बाद, पूरी पार्टी के हारने के बाद भी गवर्नर बनने का सौभाग्य मिल जाता है। क्या पता, रघुवर को अब संगठन की जवाबदेही मिल ही जाए। यानी राष्ट्रीय दल में हैं तो दिल्ली को ठीक रखिये। दिल्ली का दिल आपसे मिला रहे तो आपका भी दिल बल्लियों सा उछलता रहेगा।

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