रांची : देश-प्रदेश और संविधान कानून से चलता है। मगर लगता है झारखंड प्रदेश इसका अपवाद है। झारखंड में नगर निकाय चुनाव और उससे जुड़े संवैधानिक और कानूनी पहलू हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243 ZC के तहत पांचवी अनुसूची के अधीन शेड्यूल एरिया में नगर निकाय चुनाव वर्जित है। जब तक उसमें संविधान के अनुच्छेद 243 ZC (1) के तहत संसद अनिवार्य संशोधन लाकर पेसा पंचायत कानून-1996 की तरह नगर निकाय चुनाव का शेड्यूल एरिया में विस्तारीकरण कानून पारित नहीं करती है। तबतक यह संविधान का प्रथम दृष्टया उल्लंघन है। यह कहना है आदिवासी सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व सांसद सालखन मुर्मू का. उन्होंने कहा कि पता नहीं ब्यूरोक्रेसी और चुनाव आयोग से जुड़े वरिष्ठ पदाधिकारियों को इसकी समझ है या नहीं? चूंकि मामला आदिवासियों से जुड़ा हुआ है, तो शायद उनके बीच संवेदनशीलता की कमी भी स्वाभाविक है। इस मामले में उन्होंने राष्ट्रपति को एक पत्र प्रेषित किया है।
आदिवासियों के अधिकार के प्रति गंभीर नहीं हैं राजनेता
उन्होंने इस मामले को झारखंड के महामहिम राज्यपाल को भी गंभीरता से देखना चाहिए। क्योंकि राज्यपाल पांचवीं अनुसूची क्षेत्र और अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों के अभिभावक हैं, प्रोटेक्टर भी हैं। विडंबना यह है कि झारखंड में कार्यरत बड़े राजनीतिक दल-झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी आदि भी संवैधानिक और कानूनी मामले पर अपनी समझ और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बदले केवल चुनाव में भाग लेने की आपाधापी में जुट गए हैं। अर्थात इन्हें भी संविधान कानून और आदिवासी हितों से कोई लेना-देना नहीं है, लेना देना है तो केवल वोट और नोट से। इसी कारण अबुआ दिशोम अबुआ राज का हाल बेहाल है। इसके लिए आदिवासी समाज को खुद एकजुट होकर संघर्ष का रास्ता अख्तियार करना होगा। उन्होंने कहा कि हेमंत सरकार द्वारा अवैध मकानों को वैध बनाने की घोषणा भी जंगल राज को स्थापित करने जैसा है। चूंकि इससे CNT /SPT कानून के अपराधियों को चोर दरवाजा मिल जायेगा। दरअसल, सभी राजनीतिक दल आदिवासियों के कानूनी अधिकार देने के प्रति गंभीर नहीं है, यह झारखंड का दुर्भाग्यपूर्ण है.