नारायण विश्वकर्मा
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन मोरहाबादी के विशाल मंच से राज्य की जनता के लिए कई सौगातों की बौछार करेंगे. वे 15 नवंबर को शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी 4 बड़ी योजनाओं की शुरुआत करेंगे। वे किसानों के लिए एप और पोर्टल लॉंच करेंगे। इसके अलावा 2 नई औद्योगिक पॉलिसी की शुरुआत करेंगे, जिसमें शिक्षा से जुड़ी 4 बड़ी योजनाएं भी शामिल हैं. पर झारखंड में बुनियादी शिक्षा से आज भी राज्य महरूम है. आदिवासी समाज में शिक्षा का अलख जगाने के लिए झारखंड को अब भी किसी रहनुमा की तलाश है. ग्रामीण इलाकों में तालीम का बुनियादी ढांचा ध्वस्त है. तालीम जबतक विकास का पैमाना नहीं बनेगा तबतक आदिवासियों का घराना नहीं चमकेगा.
विकास की बुनियादी जरूरत है शिक्षा से गांवों को जोड़ना
वैसे तो झारखंड में आदिवासियों के हित से जुड़े कई ज्वलंत मुद्दे गौण हैं. लेकिन शिक्षा से अब कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए. क्योंकि विकास की बुनियादी जरूरत है शिक्षा. इसके बिना झारखंड झारखंड के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती. विडंबना देखिए कि झारखंड बनने के 22 साल बाद भी किसी सरकार ने आदिवासी नौनिहालों को मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने की पहल नहीं की. साक्षर आदिवासियों ये भी नहीं मालूम होगा कि सरकारी योजनाओं का लाभुक कैसे बना जाता है. यह आरोप लगाया जाता है कि अखंड बिहार के समय आदिवासी समाज को मूलभूत शिक्षा से वंचित रखा गया है. सच्चाई यह है कि आदिवासियों का विकास कम, विनाश ज्यादा हुआ है. यह कटू सत्य है कि आदिवासी समाज का सही मायने शिक्षा से कम सरोकार होना उनकी कई जटिल समस्याओं पर कुठाराघात करता है. ऋणग्रस्तता, भूमि हस्तांतरण, गरीबी, बेरोजगारी, स्वास्थ्य आदि कई समस्याएं जो शिक्षा को प्रभावित करती है. सच कहा जाए तो, जनजातीय समूहों पर औपचारिक शिक्षा का प्रभाव बहुत कम पड़ा है.
मातृभाषा की शिक्षा से दूर क्यों हैं आदिवासी समाज?
ऐसा कहा जाता है कि पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़कर अभी तक प.बंगाल के अलावा किसी भी अन्य प्रदेश में आदिवासियों को उनकी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा नहीं दी जाती है. ऐसे में यह समाज कैसे विकसित होगा.जिसे अपनी मातृभाषा से ही दूर रखा गया है. अखंड बिहार में बरसों पहले आदिवासियों को मातृभाषा में पढ़ाने का कानून जरूर बनाया गया था. दुर्भाग्य से राजनीतिक स्वार्थवश इसपर आगे काम नहीं हो सका. झारखंड के अलग होने के बाद भी प्राथमिक शिक्षा देने का प्रावधान अबतक लागू नहीं हो पाया है. ऐसी स्थिति में जनजातीय समाज देश के अन्य राज्यों से कटा हुआ है. झारखंड जैसे अतिपिछड़े राज्य में शिक्षा का अलख जगाने के लिए अब भी किसी रहनुमा की तलाश है. यहां की साक्षरता दर 67.63 है, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि आज भी ग्रामीण इलाकों में हमारे नौनिहाल पेड़ की छांव तले पढ़ने को मजबूर है. आदिवासी क्षेत्र के प्रबुद्धजन का मानना है कि सरकार की यह मानसिकता है कि आदिवासी मूर्ख रहें. शासन-सत्ता इससे नावाकिफ नहीं है. शिक्षा देने के बदले मिड डे मिल पर सरकारों का अधिक फोकस रहा है. झारखंड के विभिन्न जिलों में पिछले तीन साल में कुपोषण और भुखमरी से 40 से अधिक लोगों की मौत हो गई. भूख के आगे पढ़ाई नहीं हो सकती. सच कहा जाए तो महंगी शिक्षा के दौर में गरीब के बच्चों को पढ़ने का हक नहीं है.
हाईकोर्ट ने कुपोषण पर स्वत: लिया संज्ञान
इधर, कुपोषण और भुखमरी को लेकर झारखंड हाईकोर्ट ने 14 नवंबर को राज्य सरकार को आदेश दिया है कि भुखमरी को परिभाषित किया जाये. हाईकोर्ट ने इस मामले में स्वत: संज्ञान लिया है. जिसे जनहित याचिका में तब्दील कर सुनवाई की जा रही है. यह मामला बोकारो में एक ही परिवार के तीन लोगों की मौत से जुड़ा हुआ है. वर्ष 2020 में बोकारो में भूखल घासी और उनके दो बच्चो की मौत हो गई थी. भूख को मौत की वजह बताया गया था. जनहित याचिका पर अगली सुनवाई की तिथि 24 नवंबर मुकर्रर की गई है. अदालत ने केंद्र और राज्य सरकार के द्वारा अनाज वितरण के लिए चलाई जा रही योजनाओं और उनके क्रियान्वयन की भी जानकारी मांगी है. ऐसे मामलों पर पहले भी हाईकोर्ट ने सरकार को कटघरे में खड़ा किया है, पर राज्य सरकार गोलमोल जवाब देकर अपना पिंड छुड़ाने में कामयाब होती रही है.
आदिवासी नौनिहालों को मातृभाषा में शिक्षा देना जरूरी
अहम सवाल ये कि आखिर यहां के नौनिहालों को मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने के प्रति सरकार गंभीरता क्यों नहीं दिखा रही है? गांव के बच्चे अगर अपनी मातृभाषा में पढ़ेंगे तो, उसे विषयवस्तु का ज्ञान रहेगा. इसलिए बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देना अनिवार्य होना चाहिए. उल्लेखनीय है कि नेतरहाट के लोरडीपा में जेफरानुस बाखला स्कूल खोलकर वहां के बच्चों को कुड़ुख और अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने का काम कर रहे हैं. मौजूदा हेमंत सरकार को इसपर गंभीरता से सोचना चाहिए. वेेेशक हेमंत सरकार ने पिछले साल भर से विकास योजनाओं पर ध्यान देना शुरू किया है. लेकिन यह नाकाफी है. मुख्यमंत्री इस बार राज्य के स्थापना दिवस पर शिक्षा के क्षेत्र में कुछ बेहतर करने का रोडमैप तैयार किया है. मसलन, गुरुजी क्रेडिट कार्ड योजना, मुख्यमंत्री शिक्षा प्रोत्साहन योजना, सीएम सारथी योजना और एकलव्य स्कील स्किम लांच करेंगे। गुरुजी क्रेडिट योजना के तहत मेडिकल और इंजीनियरिंग के अलावा अन्य शोध कार्य हुए लाभुक को 15 लाख रुपये तक ब्याजमुक्त ऋण दिया जाएगा। लाभुक को इसे 15 साल में लौटाना होगा। मुख्यमंत्री शिक्षा प्रोत्साहन योजना के तहत लाभुकों को इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ, जनसंचार, फैशन डिजाइनिंग, होटल मैनेजमेंट और चार्डट एकाउंट की पढ़ाई के लिए फ्री कोचिंग दी जाएगी। इसके लिए 10वीं पास युवा आदेवन कर सकेंगे। एकलव्य स्किल स्कीम के तहत युवाओं को वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाएगी।
प्राथमिक अस्पतालों की दुर्दशा पर ध्यान क्यों नहीं?
सेहत के क्षेत्र में झारखंडियों को समुचित इलाज देने की मुकम्मल व्यवस्था करने में सभी सरकारें विफल साबित हुई है. हालांकि रांचीवासियों के लिए रांची सदर अस्पताल की नई बिल्डिंग का भी उद्घाटन किया जाएगा। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों के प्राथमिक अस्पतालों की दुर्दशा पर फोकस करना सरकार की प्राथमिक सूची में होनी चाहिए थी. दरअसल, ग्रामीण इलाकों में तमाम बुनियादी सुविधाओं का टोटा है. वोट के समय नेता गांवों की कच्ची-पक्की सड़कों या पगडंडियों पर जरूर नजर आते हैं. सभी बिजली, पानी, शिक्षा-स्वास्थ्य की बातें जरूर करते हैं. लेकिन चुनाव जीतने के बाद सब कुछ एक झटके में भुला दिया जाता है. ग्रामीण इसे अपनी नियति मान कर खामोश रहते हैं. पता नहीं यह सिलसिला कब रूकेगा, यह अहम सवाल है.