गिरिडीह (कमलनयन) जब देश में चारों तरफ हिंदू-मुस्लिम एकता खंडित करने का कुत्सित प्रयास जारी है. ऐसी स्थिति में आस्था के कुछ ऐसे केंद्रबिंदु भी हैं, जहां हिंदू-मुस्लिम सभी एक साथ मिलकर चादरपोशी कर अपने परिवार की दुआ मांगते हैं. इसलिए कि यहां लंगटा बाबा की रहमत बरसती है. पिछले चार दशक से यह समाधिस्थल इसका गवाह हैं. झारखंड में उत्तरी छोटानागपुर के गिरिडीह जिले में 18वीं सदी के उतरार्द्ध में जिला मुख्यालय से 42 किलोमीटर देवघर-चकाई मार्ग के खरगडीहा में सिद्ध महापुरूष लंगटा बाबा का आगमन हुआ। जिन्होंने आध्याल्मिक शक्तियों के जरिये चार दशक तक चमत्कारी लीलाएं दिखाकर पीड़ित मानव मात्र को उनके कष्टों से मुक्ति दिलायी। और 10 जनवरी 1910 की पौष पूर्णिमा के दिन ब्रम्हलीन हो गये। समाधि स्थल की खास बात यहां हिंदू-मुस्लिम का भेदभाव नहीं है. दोनों समुदाय अपनी मन्नतें पूरी होने पर चादर चढ़ाते हैं या फिर मन्नत मांगने आते हैं. दरअसल, समाधि स्थल सांप्रदायिक सौहार्द व एकता की मिसाल कायम करने की बखूबी भूमिका निभा रहा है.
जानिए कौन थे लंगटा बाबा?
लंगटाबाबा कौन थे? कहां से आए थे? उनका वास्तविक क्या नाम था?, यह आज तक कोई नहीं जान पाया। किंतु बाबा के संबंध में लिखी गई कुछ पुस्तकों के मुताबिक सन् 1870 ई में बाबाधाम (देवघर) जाने के क्रम में नागा साधुओं के दल में बाबा आए थे। खरगडीहा में रात्रि विश्राम के बाद दूसरे दिन अन्य साधु तो गणतव्य की ओर आगे बढ़ गये, लेकिन न जाने बाबा क्यों यहीं रुक गए. अलौकिक आभा से परिपूर्ण लम्बे कद के एक साधु ने तत्कालीन खरगडीहा थाना परिसर में ही धुनी रमा ली। कालान्तर में यही साधु लंगटाबाबा या लंगेश्वरी बाबा के नाम से विख्यात हुए। क्षेत्र के लोग बाबा की चमत्कारी लीलाओं की चर्चा आज भी बड़े सम्मान के साथ बयां करते हैं. लोग बताते हुए गर्व का अनुभव करते हैं. यहां मुस्लिम-हिंदू सभी श्रद्धापूर्वक चादरपीशी करते हैं और मन्नतें मांगते हैं. बाबा के प्रति लोगों में इतनी श्रद्धा भाव जताते हैं कि आप यहां आकर भूल जाएंगे कि हिंदू-मुस्लिम एक-दूसरे से अलग हैं. सभी बाबा के समाधि स्थल पर बड़ी श्रद्धा और सच्चे मन से मत्था टेकते हैं. लोगों को अगाध विश्वास है कि यहां मन से मत्था टेकने से उनकी मुराद पूरी होती है.
तीनदिनी समाधि मेले के आयोजन की तैयारी
लंगटा बाबा को समाधि लिए 110 वर्ष से अधिक हो गये। लेकिन इलाके में बसे लोक जीवन के दिलों में आज भी लंगटा बाबा किसी अवतारी पुरुष की तरह बसे हुए हैं. यहां हर साल पौष पूर्णिमा के दिन तीन दिवसीय समाधि मेले का आयोजन होता है. इस विशेष अवसर पर देशभर के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु बाबा की समाधि पर चादर चढ़ाने, मत्था टेकने, मन्नतें मांगने और मन्नतें पूरी होने पर अभार व्यक्त करने आते हैं. कहा जाता है कि 1910 में जब अंतिम संस्कार के दिन खरगडीहा थाना के तत्कालीन दारोगा वहाबुद्दीन खान ने बाबा के शरीर पर पहली बार चादर रखी थी. तबसे चादरपोशी की शुरुआत जमुआ के थाना प्रभारी ही करते हैं. समाधिस्थल पर यहां सालों भर श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है. कहते हैं कि बाबा के दरबार से कोई खाली हाथ वापस नहीं लौटता। अपने भक्तों पर बाबा रहमत की वर्षा करते हैं.
लंगटा बाबा मेले में उमड़ता है जनसैलाब
लंगटा बाबा समाधिस्थल के पास लगनेवाले मेले में जनसैलाब उमड़ता है. भीड़ को संभालने के लिए सेवादारों की टोली दिन-रात मेहनत करते हैं. लंगटा बाबा ऐसे धार्मिक महापुरुष हुए जिनके प्रति हिन्दू-मुस्लिम सभी धर्मों के लोगों की समान आस्था है. यही करण है कि लगभग चार दशक तक खरगडीहा में धुनी रमाकर अपनी चमत्कारी लीलाओं के जरिये बाबा ने पीड़ित मानवता का कल्याण करते हुए परस्पर भाईचारे का संदेश दिया। हर साल बाबा का समाधि दिवस समारोह काफी श्रद्धा भाव से मनाया जाता है. भक्तगण लंगर लगाते हैं. पौष पूर्णिमा को तड़के तीन बसे से ही चादर चढ़ाने का क्रम शुरू होता है, जो देर रात तक चलता रहता है। बहरहाल, मेले के आयोजन को लेकर स्थानीय प्रशासन समाधि स्थल पर विधि-व्यवस्था की तैयारी कर ली गई है. इसके लिए बाबा सेवा समिति के सेवादारों के साथ स्थानीय पुलिस प्रशासन की बैठक हुई. सभी ने मेले को सफल बनाने का निर्णय लिया है.