देवउठनी ग्यारस के साथ ही भारत में शादियों का शुभारंभ हो जाता है, और कई महीनों तक शहनाईयों की गूंज, पारंपरिक रस्मों की खूबसूरती, और परिवारों का मिलन चलता रहता है। परंतु आधुनिक समय में, शादियाँ एक पवित्र बंधन से कहीं अधिक दिखावे और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बनती जा रही हैं। आइये इस लेख में समझें कि कैसे शादियों का यह बदलता स्वरूप हमारी संस्कृति और आपसी रिश्तों पर असर डाल रहा है।
दिखावे और महंगी शादियाँ: क्या प्रतिष्ठा का माध्यम?
भारतीय समाज में शादियों में भव्यता और खर्च को व्यक्ति की प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखा जाने लगा है। जितनी महंगी शादी, उतनी ऊँची सामाजिक हैसियत—यह सोच कहीं न कहीं हर समाज में दिखाई देने लगी है। विवाह के आयोजन अब कई दिनों तक चलने वाले महंगे समारोहों में बदल गए हैं। हर छोटी-बड़ी रस्म के लिए अलग-अलग आयोजन किए जाते हैं। जैसे कि मेहंदी के लिए हरे कपड़े, हल्दी के लिए पीले रंग के कपड़े, और बॉलीवुड की तर्ज पर संगीत या कॉकटेल पार्टी का आयोजन भी आवश्यक हो गया है।
शादी में हर आयोजन और उसकी शान-शौकत में इतना खर्च किया जाता है कि ना केवल मेज़बान बल्कि मेहमान भी आर्थिक दबाव में आ जाते हैं। मेहमानों के लिए कपड़े, श्रृंगार, और उपहार लाने का खर्च बढ़ता जाता है।
डेस्टिनेशन वेडिंग: निकटता या दूरियाँ?
मशहूर हस्तियों से प्रेरित होकर अब डेस्टिनेशन वेडिंग का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है। लोग शादियों के लिए अपने शहर से दूर किसी सुंदर स्थान पर जाते हैं, जहाँ गिने-चुने मेहमानों को ही आमंत्रित किया जाता है। इससे शादी के आयोजन में निजीपन और विशिष्टता आ जाती है, लेकिन साथ ही इसके परिणामस्वरूप परिवारों के बीच दूरियाँ भी बढ़ने लगी हैं।
अक्सर, जिन्हें शादी में नहीं बुलाया जाता, उनके मन में यह खयाल आना स्वाभाविक है कि उन्हें आमंत्रित न करने का कारण निकटता की कमी हो सकती है। इससे एक नकारात्मक भावना और दरारें पैदा होती हैं। साथ ही, यह मेहमानों के लिए भी आर्थिक रूप से चुनौतीपूर्ण होता है, क्योंकि डेस्टिनेशन वेडिंग में जाने और वहाँ रहने का खर्चा अतिरिक्त दबाव डालता है।
भोजन और बर्बादी: दिखावे की एक और हद
शादियों में विभिन्न प्रकार के व्यंजन परोसने की एक होड़ सी चलती है। कई स्टॉल्स, कई प्रकार की मिठाइयाँ, और अलग-अलग व्यंजनों की लंबी सूची देखने को मिलती है। मेहमान शौक के चलते ढेर सारा खाना ले लेते हैं, लेकिन अधिकतर खाना व्यर्थ हो जाता है। इससे ना केवल भोजन का अपमान होता है, बल्कि कई बार यह पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचाता है।
आर्थिक असमानता का बढ़ता बोझ
महंगी शादियों का प्रचलन गरीब और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुका है। भारत में 37% से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसे में, शादियों के इन महंगे आयोजनों का दबाव उनपर भारी पड़ता है। समाज में इज्जत बनाए रखने के लिए कई परिवार कर्ज लेकर इन आयोजनों का खर्च उठाने की कोशिश करते हैं, जिससे वे आर्थिक संकट में फंस जाते हैं।
इस प्रकार के आयोजनों में गरीब परिवारों को निमंत्रण देना भी उनके लिए एक आर्थिक बोझ बन जाता है। उन्हें कपड़े, उपहार, और यात्रा का खर्च वहन करना पड़ता है, जो उनकी सीमित आय के लिए बहुत बड़ा खर्च साबित हो सकता है।
क्या शादियाँ अब मात्र दिखावे का माध्यम बन गई हैं?
आधुनिक शादियों का यह बदलता स्वरूप अब सामाजिक प्रतिष्ठा, प्रतिस्पर्धा, और दिखावे का प्रतीक बनता जा रहा है। यह विचारणीय है कि यह दिखावा वास्तव में किस हद तक उचित है। शादियों का असली उद्देश्य दो परिवारों का मिलन, रिश्तों का सशक्तिकरण, और नई शुरुआत का उत्सव मनाना है। परंतु जब यह आयोजन केवल समाज में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए हो, तो इस पर पुनः विचार करने की आवश्यकता होती है।
नतीजा: विचारशील आयोजनों की आवश्यकता
समाज के बदलते चलन के साथ शादियों को भी सादगीपूर्ण और विचारशील बनाने की आवश्यकता है। विवाह जैसे पवित्र बंधन का उद्देश्य रिश्तों की मिठास को बढ़ाना है, न कि किसी के आर्थिक बोझ को बढ़ाना। समाज में सादगी का संदेश देने वाले आयोजन न केवल दूसरों के लिए एक अच्छा उदाहरण स्थापित करते हैं बल्कि इससे समाज में आर्थिक असमानता को भी कम किया जा सकता है।
आज की शादियाँ वास्तव में हमारे समाज में दिखावे और प्रतिस्पर्धा का एक माध्यम बन चुकी हैं। यह सोचने का समय आ गया है कि हम अपनी संस्कृति और परंपराओं को बचाने के लिए इस दिखावे को कैसे सीमित कर सकते हैं। अंत में, शादियाँ ऐसे आयोजित करें कि वे रिश्तों की मिठास को बढ़ाएँ, न कि किसी के आर्थिक बोझ को।
-Muskan