आचार्य अमरेंद्र मिश्र
प्रधान सेवक के नए भारत में नाम बदलने को भी विकास से जोड़ दिया जाएगा, इसकी कल्पना 8 साल पूर्व किसी ने नहीं की थी. नए भारत में नाम बदलने का नया युग. बदलिए किसने रोका है. करोड़ों लोगों को ये सब सुहा भी रहा है. विरोधियों को कर्तव्य पथ पर चलना ही नहीं आता है. चलना आता तो सत्ता सुख भोग रहे होते. कर्तव्यपथारोहण की झांकी का दिव्यदर्शन जनगण के कल्याणार्थ है. आत्मनिर्भर भारत में कर्तव्यपरायणता जरूरी है. अलबत्ता नाम बदलने को लेकर अपने भी तंज कस देते हैं. राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कह दिया कि राजपथ का नाम बदलने की जरूरत नहीं थी। यह नाम कोई अंग्रेजों का दिया हुआ नहीं था। प्रधानमंत्री हर तीसरे दिन उद्घाटन करते हैं, आज कुछ नहीं रहा होगा तो राजपथ का नाम बदलकर उसका उद्घाटन कर दिया। वैसे बता दें कि राजपथ एक प्रकार से किंग्स-वे का हिंदी अनुवाद था. लोकतंत्र में कोई किंग नहीं होता. भारत में लोकतंत्र कायम है और संविधान ने इसे बेशुमार मजबूती दी है.
अब तो नाम ही काम का पर्याय बन गया है
काम के नाम पर नाम बदलने से बेचारी जनता बहुत खुश होती है. क्योंकि इसमें उन्हें अपने विकास आईना दिखाई देता है. वैसे नाम ही काम का पर्याय बन जाय तब इसे “राम से बड़ा राम का नाम” पंक्ति चरितार्थ हो जाती है। देश में आये दिन जिल्द बदलने की परिपाटी खूब चल पड़ी है। इतिहास की कोई किताब उठा लें, आवरण पृष्ठ हटा दें। मूल लेखक का नाम गौण कर दें। नई चमकदार जिल्द लगा दें, और भूलें नहीं, स्वर्णाक्षरों में लिख दें अपना नाम। बस हो गया काम। कर्तव्य पथ पर आपके शुभ कदम जैसे पड़ें, सेल्फी या कुछ अन्य झांकियों का बेशुमार प्रचार करवा लें। बुद्धिजीवी आलोचना करते हुए कह देंगे नव संकल्प की इस वेला में यह विकल्पहीन प्रकल्प है. आलोचकों के कहने से हमारे प्रधान सेवक की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता. अलबत्ता आपकी सेहत भले खराब हो जाएगी.
राजपथ नाम सामंतवादी या राजतंत्रवादी प्रतीत होता था
अब समझिए, राजपथ नाम ही था ऐसा जो सामंतवादी या राजतंत्रवादी प्रतीत होता था. यह राजा का पथ था, जनता का नहीं। अब कर्तव्य पथ नाम बदलते ही बोध होने लगा कि कर्तव्य सम्पादन होगा. इस पर चलनेवाले लोग नागरिक कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित होंगे. राजा बनने या अधिकार पाने का लालच गलती से जेहन में नहीं आएगा। वैसे कई लोगों ने कहा कि कर्तव्य पथ के बदले लोकपथ कर दिया जाता. हां, इस नाम में दम है, क्योंकि लोकपथ पर चलकर आगे ही लोकतंत्र के मंदिर की चौखट मिलेगी, जहां पहली बार प्रवेश कर हमारे रहनुमा ने मत्था टेकते हुए कहा था हम प्रधानमंत्री नहीं देश के प्रधान सेवक हैं. भाई मेरा तो मानना है कि राजा या शासक, चाहे जो भी हो, उसका प्रथम लक्ष्य होता है अपनी कुर्सी को बचा कर रखना। पुराने राजपथ पर चलकर पहुंचनेवाले सभी शासक प्रमुख अपनी गद्दी बचाने के लिए जिन नीतियों का प्रयोग करता है साम, दाम, दण्ड, भेद की श्रेणी में रखा जाता है.
करतब दिखाने में जो दक्ष हो, वह राजा अधिक कर्तव्यवान होता है
आज के राजनीतिक परिपेक्ष्य में साम अर्थात गीत-संगीत जैसे मधुर, सुस्वादु घोषणाओं द्वारा जनाकर्षण में अपार वृध्दि कर लेना ही शासकीय कला की निपुणता मानी जाएगी. इस मामले में हमारे प्रधान सेवक का जवाब नहीं. दाम का अर्थ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मत के बदले में दाम या दान की श्रेणी में आएगा. दण्ड तो आप खूब समझ रहे होंगे. विपक्ष को बुझा रहा है. जांच एजेंसियों मिलता है टारगेटेड टास्क. कानून का धौंस द्वारा प्रताड़ित करके मानसिक दण्ड और कई प्रकार के कर भार द्वारा दंड दिया जाना भी शासक वर्ग का धर्म है. और अंत में बचा बेचारा भेद. इसमें पंथ, समाज, भाषा, जाति-धर्म और दलों में भेद-विभेद उत्पन्न करके खुद जमे रहने की कुनीति। देश में अभी ये तेजी से फल-फूल रहा है. इसमें जो पारंगत होगा वही राज करेगा. अवाम कर्तव्य पथ पर चलते रहें. वैसे मेरा मानना है कि शब्दार्थ-भावार्थ और गूढार्थ का व्यापक क्षेत्र होता है। नाम परिवर्तन किए बिना ही राजनीति का अर्थ आज के परिपेक्ष्य में वह नीति जो राज में ही रहे। राज़ यानी रहस्य में, कुछ भी पारदर्शी नहीं हो, उसे ही राजनीति कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा. और कर्तव्य, नाना प्रकार के करतब दिखाने में जो दक्ष हो वह राजा अधिक कर्तव्यवान होता है.
इंद्रप्रस्थ नगर को इंद्र के स्वर्ग की तरह बसाया गया था
मेरा तो मानना है कि नई दिल्ली…पुरानी दिल्ली…तेरी दिल्ली…मेरी दिल्ली…यानी दिल्ली से दिल्लगी बहुत हो गई. दिल्ली के दिल में अगर हिंदुस्तान धड़कता है तो, इसका नामकरण भी अब जरूरी प्रतीत होता है. सदियों से दिल्ली को विदेशी लुटेरों और मुगलों ने लूटा और नाम भी घटिया रख दिया. क्यों न नामकरण के युग में दिल्ली का वही हजारों वर्षों का प्राचीन नाम इंद्रप्रस्थ कर दिया जाए. आखिर भगवान के नाम इंद्र के नाम पर इंद्रप्रस्थ बना है. इंद्रप्रस्थ नगर को इंद्र के स्वर्ग की तरह बसाया गया था. भगवान श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से इंद्र के स्वर्ग के समान एक महान शहर का निर्माण करने के लिए कहा था. विश्वकर्मा ने इस नगर में दिव्य और सुंदर उद्यान और मार्गों का निर्माण किया था. प्रधान सेवक के राज में दिल्ली भी तो इंद्रप्रस्थ जैसा लगने लगा है.
जानिए दिल्ली का नामकरण कैसे हुआ?
मौर्यकाल में दिल्ली या इंद्रप्रस्थ का कोई विशेष महत्व इसलिए नहीं रहा, क्योंकि राजनीतिक शक्ति का केंद्र मगध हो गया था. कुछ इतिहासकार भी कहते हैं कि तोमरवंश के एक राजा धव ने इलाके का नाम ढीली रख दिया था, क्योंकि किले के अंदर लोहे का खंभा ढीला था और उसे बदला गया था। यह ढीली शब्द बाद में दिल्ली हो गया। प्रधान सेवक के राज में दिल्ली अब ढीली नहीं रही. वैसे मौर्य और गुप्त साम्राज्य के बाद दिलई का जिक्र 737 ईस्वी में भी मिलता है. कहते हैं उस दौर में राजा अनंगपाल ने पुरानी दिल्ली (इंद्रप्रस्थ) से दस मील दक्षिण में अनंगपुर बसाया. यहां ढिल्लिका गांव था. दरअसल, दिल्ली को सैकड़ों वर्षों तक बेरहमी लूटा गया. लाखों लोगों को मारा गया. नादिर शाह ने तो पूरी दिल्ली ही उजाड़ दी थी. नादिर के अंतिम शासनकाल के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की दिल्ली में इंट्री हुई. इसके बाद 1803 में दिल्ली में अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गई. अंग्रेजों ने भी वही किया जो तैमूर लंग और नादिर शाह ने किया. इसलिए अब इस नापाक नाम को भी बदल कर इंद्रप्रस्थ कर दिया जाना चाहिए. इससे सनातनियों का मान बढ़ जाएगा और आपका क्रेज भी…!!