हिमंता विस्व सरमा को झारखंड का इतिहास-भूगोल कितना पता है, ये तो उनकी रणनीति से पता चल गया है. सिर्फ अपनी झेंप मिटाने या कठदलीली पेश कर मीडिया में सुर्खियां बटोरने से पार्टी का भला नहीं होनेवाला. विघ्नसंतोषी नेताओं का सवाल है कि आखिर उनसे ये सवाल कौन पूछेगा कि झारखंड के अबतक के इतिहास में कितने नेताओं ने पाला बदला और वे जेएमएम में शामिल हुए? ये सवाल भाजपा के अंदरखाने में गूंज रहा है.
नारायण विश्वकर्मा
आज से ठीक एक माह बाद यानी 23 नवंबर को झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे आएंगे. झारखंड में 5 जनवरी तक सरकार का गठन होना था, लेकिन ये
पहला मौका होगा, जब झारखंड में एक माह पूर्व ही सरकार का गठन हो जाएगा. चुनाव प्रचार के लिए प्रथम चरण के प्रचार के लिए समय कम पड़ता जा रहा है. वहीं एनडीए-इंडिया में उम्मीदवारों के चयन को लेकर खींचतान अभी तक जारी है. खासकर एनडीए में पहली बार ऐसा हो रहा है कि टिकट नहीं मिलने के कारण सबसे अधिक नेता झामुमो का दामन थाम रहे हैं. शायद प्रदेश के शीर्ष नेताओं पर केंद्रीय नेतृत्व को उतना भरोसा नहीं था. इसलिए भाजपा में पहली बार झारखंड प्रदेश भाजपा के दो-दो प्रभारी बनाए गए. इसके बावजूद भाजपा के अबतक 7 विधायक और पूर्व विधायक झामुमो में समा गए हैं. वैसे समय रहते मेनका सरदार को पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने मना लिया. इसके कारण पोटका में मीरा मुंडा ने राहत की सांस ली है. हालांकि मेनका सरदार को मनाने में झारखंड प्रभारियों या प्रदेश नेतृत्व का कोई योगदान नहीं है, ये अर्जुन मुंडा की राजनीतिक सूझबूझ का कमाल था.
हिमंता के दावे में दम नहीं, डैमेज कंट्रोल करना आसान नहीं
मजेदार बात देखिये कि इसके बावजूद झारखंड चुनाव सह प्रभारी सह असम सीएम हिमंता बिस्वा सरमा का दावा है कि मैं पहली बार झारखंड में ऐसा चुनाव देख रहा हूं। इस बार हमारी पार्टी में ज्यादा असंतोष नहीं है। बहुत अच्छे उम्मीदवारों की लिस्ट जारी हई है. बकौल सरमा फरमाते हैं कि जेएमएम सत्तारूढ़ पार्टी है। उसे अपने लोगों से टिकट देने की अपेक्षा थी, उनके पास अपने उम्मीदवार नहीं थे। ये आपको कैसे पता चला? ऊपर से ये तुर्रा भी दिया कि कम से कम आज असम में भाजपा कांग्रेस से आनेवाले किसी भी व्यक्ति को टिकट नहीं देगी। वे तो स्वयं कांग्रेस में बीस साल रहने के बाद भाजपा में आए. भाजपा ने तो उनके घपले-घोटाले को लेेेकर एक बुकलेट ही निकाल दिया था. इसके बाद वे भाजपा में समा गए,सब खत्म हो गया.
फिर कहा कि अगर हेमंत सोरेन को अभी भी और उम्मीदवारों की जरूरत है, तो मुझे बताएं, मैं उनको दे दूंगा. कुणाल षाड़ंगी के बारे में उन्होंने फरमाया वो मेरे पास गुवाहाटी आए और मुझसे मिलने के लिए ओडिशा गए, लेकिन मेरे पास जगह नहीं थी, जो लोग जेएमएम में आ रहे हैं वे मुझसे पहले मिले थे, लेकिन मैंने मना कर दिया.
अब सवाल उठता है कि हिमंता बिस्वा सरमा के दावे-प्रतिदावे और बड़बोलेपन अगर इतना दम था तो क्यों भाजपा में डैमेज कंट्रोल करने लिए आनन-फानन में 22 अक्तूबर को राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष को रांची आकर क्यों यह कहना पड़ा कि पार्टी प्रत्याशियों की घोषणा के बाद भाजपा से त्यागपत्र के सिलसिले को रोकना पार्टी पदाधिकारियों का सर्वप्रथम दायित्व होना चाहिए. बाकायदा बीएल संतोष ने पार्टी में पाला बदल के खेल को रोकने के लिए चुनाव प्रबंधन के पदाधिकारियों की बैठक में कहना पड़ा कि अगर कोई निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में नामांकन भरता है, तो उसे ऐसा करने से रोकें.
झारखंड का इतिहास-भूगोल समझने में शायद चूक गए हिमंता…!
हिमंता विस्व सरमा को झारखंड का इतिहास-भूगोल कितना पता है, ये तो उनकी कारस्तानियों से पता चल गया है. यहां मात खा गए हैं हिमंता. सिर्फ अपनी झेंप मिटाने या कठदलीली पेश कर मीडिया में सुर्खियां बटोरने से पार्टी का भला नहीं होनेवाला. विघ्नसंतोषी नेताओं का सवाल है कि आखिर उनसे ये सवाल कौन पूछेगा कि झारखंड में अबतक के इतिहास में कितने नेताओं ने भाजपा का पाला बदल कर जेएमएम में गए? झारखंड के इतिहास में ये पहली बार हुआ कि सिर्फ 21 अक्तूबर को ही थोक भाव में बागी नेता भाजपा का दामन झटक कर जेएमएम में चल दिए.
चुनावी दावपेंच में माहिर प्रदेश के कई दिग्गज नेताओं को तो भूगोल पता है कि जामा से सीता सोरेन तीन बार एसटी सीट पर जीत चुकी हैं. फिर उन्हें जामताड़ा सीट क्यों दी गई? ये किसने तर्क दिया कि वे ओडिशा से आती हैं, इसलिए एसटी सीट (जामा) से चुनाव नहीं लड़ सकती हैं. फिर तीन बार जामा से सीता सोरेन कैसे चुनाव लड़ीं? दुमका से दो बार हेमंत सोरेन को शिकस्त देनेवाली लूईंस मरांडी को बरहेट जाने के लिए क्यों दबाव बनाया गया? भाजपा चुनाव प्रबंधन को भेजे गए लूईस मरांडी के पत्र पर दिग्गजों ने गौर क्यों नहीं फरमाया?
हिमंता चाणक्य क्या, जुगाड़ू तंत्र भी साबित नहीं हुए…!
कुछ राजनेता और भाजपा के समर्थक मानते हैं कि हिमंता झारखंड में चाणक्य बनकर उभरे हैं. दरअसल, जुगाड़ू तंत्र का इस्तेमाल करनेवाले को यह नाम दे दिया गया है. अगर चाणक्य की भूमिका में वे होते तो, चंपई सोरेन के साथ आधे दर्जन से अधिक विधायक उनके साथ हो लिए होते और हेमंत सरकार गिर गई होती और आज झारखंड में राष्ट्रपति शासन में चुनाव हो रहा होता. दरअसल, चार बार ऑपरेशन लोटस फेल होने के बाद अंतिम हथियार के रूप में हिमंता विस्वा सरमा को एक रणनीति के तहत इस्तेमाल किया गया, लेकिन वे इस ऑपरेशन में पूरी तरह से फेल हुए. हकीकत तो ये है कि हिमंता एक दिग्गज पत्रकार के भ्रमजाल में उलझ कर रह गए. सच कहा जाए तो प्रदेश भाजपा के कई शीर्षस्थ नेता हिमंता को मजबूरी में बर्दाश्त कर रहे हैं.
भाजपा कार्यसमिति सदस्य संदीप वर्मा ने बर्दाश्त नहीं किया और वो सबकुछ उगल दिया जो कई नेताओं के पेट में मरोड़ दे रहा था. दिलचस्प बात ये है कि संदीप वर्मा के खिलाफ अभी तक कोई एक्शन नहीं लिया गया है. पार्टी की ओर से कारण बताओ नोटिस तक जारी नहीं किया गया है. एक भाजपाई ने मुझे बताया कि संदीप वर्मा असंतुष्टों की जुबान बन बरस पड़े हैं. उसने कहा कि अंदरूनी तौर पर भाजपा में भयंकर गुटबाजी है. भाजपा की स्थिति 2019 से भी बदतर हो सकती है. लेकिन जब सबकुछ हाथ से निकल जाएगा, तबतक बहुत देर हो चुकी होगी.
झारखंड के बुनियादी मसलों को छोड़ डेमोग्राफी में उलझे रणनीतिकार
विडंबना देखिए कि रांची से लेकर दिल्ली तक के शीर्ष नेताओं ने झारखंड के बुनियादी मसलों को छोड़ संतालपरगना क्षेत्र की डेमोग्राफी में उलझे हुए हैं. इस मामले में स्वयं असम के सीएम अपने राज्य की डेमोग्राफी और घुसपैठियों की हकीकत भूल गए. उन्हें पता है कि यह मामला पूरी तरह से बीएसएफ से जुडा़ हुआ है. अगर वाकई इसके प्रति चिंता थी तो, केंद्र ने अभी तक कोई प्रतिनिधिमंडल भेज कर राज्य सरकार से वार्ता की पहल क्यों नहीं की? हकीकत में संतालपरगना में पलायन-रोजगार सबसे पुरानी और विकराल समस्या है. इसपर किसी भी सरकार ने कभी ठोस पहल नहीं की.
दरअसल, झारखंड में ज्वलंत मुद्दे वर्षों से गौण है. केंद्र सरना धर्म कोड बिल पर चुप है. स्थानीय नियोजन नीति और डेमोसाइल के मामले पिछले 24 साल से यथावत हैं. पेसा कानून और समत जजमेंट को लागू कराने में किसी को दिलचस्पी नहीं है. सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय को केंद्रीय आदिवासी स्वायत्त विश्वविद्यालय बनाये जाने पर भाजपा ने कभी हेमंत सरकार से सवाल नहीं किया. सीएम हेमंत सोरेन लगातार खान-खनिज की रॉयल्टी की मांग कर सीधे पीएम पर निशाना साध रहे हैं. इसपर उनकी सफाई आने से झारखंड के अवाम में सही संदेश जाता. लेकिन भाजपा की ओर से अभी तक सफाई नहीं आई. यह काम परिवर्तन यात्रा के दौरान ही हो जाना चाहिए था. सिर्फ कागजों में करोड़ों की सौगात देने से आम जनमानस पर कोई विशेष छाप नहीं छोड़ी जा सकती. झारखंड में वंदे भारत एक्सप्रेस में गरीब-मजलूम आदिवासी सफर नहीं कर सकते. उन्हें चाहिए सस्ती रेल व्यवस्था, जिसपर झारखंड के नेताओं ने कभी आवाज नहीं उठाई.
बहरहाल, इतना याद रहे कि झारखंड की सियासत और परिणाम पर देशभर की नजरें टिकी हैं. बाहरी लोग आकर झारखंड की दिशा और दशा नहीं बदल सकते. 26 प्रतिशत आदिवासी समुदाय और करीब 35 प्रतिशत मूलवासी समाज को आखिर विजनरी लीडरशिप कब मिलेगा, पता नहीं इसका इंतजार कब खत्म होगा…?